In The Supreme Court Of India CRIMINAL APPELLATE JURISDICTION
CRIMINAL APPEAL No.522 OF 2021
[Arising out of Special Leave Petition (Crl.) No. 2096 of 2021]
Nathu Singh ….. Appellant(अपीलकर्ता)
VS.
State of Uttar Pradesh & Ors. …..Respondents
And
CRIMINAL APPEAL No.523 OF 2021 [Arising out of Special Leave Petition (Crl.) No. 2271 of 2021]
Ompal Singh ….. Appellant(अपीलकर्ता)
VS.
State of Uttar Pradesh & Ors.
कोरम सीजीआई एन.वी रमना, जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस अनिरुद्ध बोस।
हाई कोर्ट अग्रिम जमानत प्रार्थना पत्र (Anticipatory Bail) खारिज करने के बावजूद भी दुर्लभ परिस्थितियों में अभियुक्त को गिरफ्तारी से सुरक्षा प्रदान कर सकते है : सुप्रीम कोर्ट
High Court can grant protection from arrest to accused in rare circumstances even after rejecting anticipatory bail application: Supreme Court
माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा एक SLP (Special Leave Petition Under Article 136 of The Constitution of India) पर सुनवाई करते हुए यह अवधारित किया गया कि :-
यहां तक कि जब न्यायालय किसी अभियुक्त को अग्रिम जमानत देने के लिए इच्छुक नहीं है, तब भी ऐसी परिस्थितियां हो सकती हैं जहां उच्च न्यायालय की राय है कि गिरफ्तारी की आशंका वाले व्यक्ति को कुछ समय के लिए, असाधारण परिस्थितियों के कारण, जब तक कि वह ट्रायल कोर्ट के समक्ष आत्मसमर्पण नहीं करता हैं, तब तक उसकी रक्षा करना आवश्यक है। उदाहरण के लिए, आवेदक कुछ समय के लिए सुरक्षा की गुहार लगा सकता है क्योंकि वह अपने परिवार के सदस्यों की प्राथमिक देखभाल करने वाला या कमाने वाला व्यक्ति है, और उन्हें उनके लिए व्यवस्था करने की आवश्यकता है। ऐसी असाधारण परिस्थितियों में भी, जब अग्रिम जमानत देने का मामला नहीं बनता है, बल्कि जांच अधिकारी ने भी जांच के लिए अभियुक्त को हिरासत में लेने का मामला बना दिया है, तब भी यह नहीं कहा जा सकता है कि उच्च न्यायालय को न्याय सुनिश्चित करने की कोई शक्ति नहीं है। इसका उल्लेख करने की आवश्यकता नहीं है, लेकिन उच्च न्यायालय ऐसा आदेश पारित करने के लिए संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत अपनी शक्तियों का प्रयोग भी कर सकता है।”
लेकिन माननीय मुख्य न्यायाधीश जस्टिस रमना की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यी पीठ ने यह भी माना कि हाई कोर्ट को अपने आदेश में उसके कारण भी बताने चाहिए कि अभियुक्त को गिरफ्तारी से संरक्षण किस लिए दिया जाना चाहिए।
दो अलग-अलग मामलो में हाईकोर्ट ने अग्रिम जमानत प्रार्थना पत्र (अन्तर्गत धारा 438 CRPC) खारिज करने के बावजूद भी अभियुक्तो को गिरफ्तारी से संरक्षण देते हुए निर्देशित किया कि वे 90 दिनो के अंदर ट्रायल कोर्ट के समक्ष आत्मसमर्पण करें। शिकायतकर्ताओ ने हाईकोर्ट के आदेश का माननीय उच्चतम न्यायालय के समक्ष यह कहते हुए विरोध किया कि धारा 438 सीआरपीसी ऐसे किसी भी प्रोटेक्शन की बात नहीं करता। बल्कि 438 सब सेक्शन 1 सीआरपीसी विशेष रुप से अग्रिम जमानत के अस्वीकृत किए जाने पर अभियुक्तों की गिरफ्तारी के लिए प्रावधान करता है।
इस तर्क का जवाब देते हुए माननीय उच्चतम न्यायालय ने धारा 438 सीआरपीसी का हवाला देते हुए कहा कि अगर धारा 438 सीआरपीसी को संपूर्णता के साथ पढ़ा जाए तो वह उच्च न्यायालय या सेशन न्यायालय द्वारा अग्रिम जमानत देने की बात करता है। न्यायालय को रिलीफ देने से पहले धारा 438 (1) सीआरपीसी मे दिए गए प्रावधानो पर भी विचार कर लेना चाहिए। धारा 438 (2) सीआरपीसी में ऐसे नियम और शर्ते बताई गई हैं जिन्हें न्यायालय द्वारा रिलीफ प्रदान करते हुए अभियुक्त पर लगाई जा सकती है। धारा 438 (3) सीआरपीसी के तहत दिए गए रिलीफ के परिणामों की बात करता है।
धारा 438 सीआरपीसी के अंतर्गत न्यायालय द्वारा जमानत प्रार्थना पत्र खारिज कर दिए जाने के बाद की प्रक्रिया केवल 438 (1) सीआरपीसी में ही दी गई है। जो विशेष रूप से प्रावधान करती है कि यदि एक बार अग्रिम जमानत प्रार्थना पत्र खारिज कर दिया जाता है या न्यायालय द्वारा मामले को जब्त करते हुए अंतरिम आदेश जारी करने से इंकार कर दिया जाता है तब आवेदक को गिरफ्तार करने के लिए पुलिस का रास्ता खुल जाता है।
माननीय उच्चतम न्यायालय ने कहा कि धारा 438 सीआरपीसी की व्याख्या करते हुए यह तथ्य भी ध्यान में रखना जरूरी है कि धारा 438 सीआरपीसी के अंतर्गत कोई भी प्रार्थना पत्र स्वीकृत या अस्वीकृत किए जाने से किसी व्यक्ति के जीवन के मौलिक अधिकारों और स्वतंत्रता पर सीधा असर पड़ता है।
कोर्ट ने कहा कि किसी व्यक्ति के जीवन और स्वतंत्रता की रक्षा करने के लिए प्रावधान भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 में दिए गए हैं। इसलिए इन प्रावधानों को इसकी लाभकारी प्रकृति पर विचार करते हुए उदारता पूर्वक पढ़ने की जरूरत है। न्यायालयो को उन सीमाओं और प्रतिबंधों को नहीं पढ़ना चाहिए जिन्हें विधायिका ने स्पष्ट रूप से प्रदान नहीं किया है। भाषा में किसी भी प्रकार की अस्पष्टता को अभियुक्त के पक्ष में ही हल किया जाना चाहिए।
तीन सदस्यीय पीठ ने आगे कहा कि वर्तमान केस की स्थिति को देखते हुए, हमें इस सवाल पर विचार नही करना है कि धारा 438 सीआरपीसी अपने आप में इस प्रकार की शक्तियाँ न्यायालय को प्रदान करता है या नहीं। यह बात स्पष्ट है कि हाई कोर्ट के पास ऐसी शक्तियां हैं। धारा 482 सीआरपीसी हाई कोर्ट को सशक्त करता है कि वह ऐसा आदेश पारित कर सके जिससे न्याय की रक्षा हो। यह प्रावधान इस वास्तविकता को दर्शाता है कि कोई भी कानून या नियम संभवत: जीवन की जटिलताओं और परिस्थितियों की अनंत सीमा के लिए जिम्मेदार नहीं हो सकता। हम उन परिस्थितियों से बेखबर नहीं हो सकते जिनका सामना अग्रिम जमानत याचिकाओं पर सुनवाई करते समय अदालतो को रोजाना करना पड़ता है। यहां तक कि जब न्यायालय अभियुक्त को अग्रिम जमानत देने की इच्छुक नहीं होती, तब भी ऐसी परिस्थितियां हो सकती है जब हाई कोर्ट की ऐसी राय हो कि किन्ही विशेष परिस्थितियों के कारण व्यक्ति की गिरफ्तारी से सुरक्षा कुछ समय के लिए आवश्यक है जब तक कि वह संबंधित न्यायालय के समक्ष आत्मसमर्पण न कर दे। उदाहरण के लिए जैसे कि व्यक्ति अपने परिवार में अकेला कमाने वाला है और परिवार के लिए उसे जरूरी संसाधनो की व्यवस्था करने के लिए समय की आवश्यक्ता है। यहां पर यह उल्लेख करने की आवश्यकता नहीं है कि कोर्ट अनुच्छेद 142 में दी गई संवैधानिक शक्तियों का इस्तेमाल करके भी इस तरह के आदेश पारित कर सकती है।
हालांकि विवेकाधीन शक्तियों का इस्तेमाल कोर्ट अंधाधुन तरीके से नहीं कर सकती। न्यायालय को धारा 438 सीआरपीसी, धारा 438 (1) सीआरपीसी में दिए गए प्रावधान, जांच एजेंसी शिकायतकर्ता, समाज की चिन्ताओं और अभियुक्त के हितों को भी ध्यान में रखकर सबके बीच में सामंजस्य बैठाते हुए आदेश पारित करना चाहिए। ऐसा आदेश तार्किक भी होना चाहिए।
Sushila Aggarwal v. State (NCT of Delhi), (2020) 5 SCC 1
उपरोक्त सुशीला अग्रवाल के मामले में माननीय उच्चतम न्यायालय की संवैधानिक पीठ द्वारा अभी हाल ही में 438 सीआरपीसी के तहत न्यायालयों द्वारा प्रयोग की जाने वाली शक्ति की सीमा को स्पष्ट किया है। जोकि इस प्रकार है :-
[ ] Regarding Question 1, this Court holds that the protection granted to a person under Section 438 CrPC should not invariably be limited to a fixed period ; it should enure in favour of the accused without any restriction on time. Normal conditions under Section 437(3) read with Section 438(2) should be imposed; if there are specific facts or features in regard to any offence, it is open for the court to impose any appropriate condition (including fixed nature of relief, or its being tied to an event),etc.
[ ] held that the life or duration of an anticipatory bail order does not end normally at the time and stage when the accused is summoned by the court , or when charges are framed, but can continue till the end of the trial. Again, if there are any special or peculiar features necessitating the court to limit the tenure of anticipatory bail, it is open for it to do so.” (emphasis supplied)
Findings Of The Court
सुप्रीमकोर्ट, प्रथमत: हाई कोर्ट ने मामले की प्रकृति और गंभीरता को देखते हुए अभियुक्तों के अग्रिम जमानत प्रार्थना पत्र को खारिज करने के बावजूद अभियुक्तो को गिरफ्तारी से सुरक्षा प्रदान कर दी, जिसका कोई विशेष कारण नही दर्शाया गया। दूसरा, अभियुक्तो को गिरफ्तारी से 90 दिनों की सुरक्षा देते हुए, न्यायालय ने जांच एजेंसी और अपीलकर्ताओ की चिंता और धारा 438 (1) परंतुक सीआरपीसी को ध्यान में नही रखा, जोकि आवश्यक है कि न्यायालय कम से कम समय के लिए ऐसे असाधारण विवेकाधीन संरक्षण आदेश पारित करें जो कि उचित रूप में आवश्यक है। वर्तमान मामले में तथ्यों व परिस्थितियों को देखते हुए गिरफ्तारी से सुरक्षा हेतु 90 दिनों (तीन महीने) का समय दिए जाने का आदेश पारित करना किसी भी तरीके से तार्किक नहीं है। इसलिए, पीठ ने उच्च न्यायालय द्वारा अभियुक्तों को दी गई सुरक्षात्मक राहत को रद्द कर दिया।
उक्त एसएलपी में माननीय उच्चतम न्यायालय ने हाईकोर्ट द्वारा दो मामलों में अग्रिम जमानत प्रार्थना पत्र रद्द करने के बावजूद गिरफ्तारी से सुरक्षा हेतु विशेष प्रावधान कर पारित आदेश के सम्बन्ध मे सुनवाई की। जिसमें प्रथम मामला नाथू सिंह की बेटी की शादी प्रतिवादी संख्या दो के साथ दिनांक 14/2/2014 को संपन्न हुई थी और दिनांक 02.01.2021 सन्देहजनक परिस्थितियों में ससुराल में उसकी मृत्यु हो गई। जिसके संबंध में प्रथम सूचना रिपोर्ट 07/2021 थाना मसूरी, जिला गाजियाबाद पर धारा 304 बी 498 ए आईपीसी और धारा 3/4 डोरी प्रोहिबिशन एक्ट के अंतर्गत प्रतिवादी संख्या दो के खिलाफ दर्ज कराई गई।
दूसरे मामले में, आरोप यह है कि अपीलकर्ता के भाई और बाद में दो बेटों पर प्रतिवादियों द्वारा भूमि के अतिक्रमण से संबंधित पक्षों के बीच विवाद के कारण हमला किया गया था, दोनो बेटों के महत्वपूर्ण अंगों पर हमला किया गया था, जिनमें से एक को खोपड़ी में फ्रैक्चर हुआ था, जिसके परिणामस्वरूप वह एक सप्ताह के लिए कोमा में था। दूसरे के सिर पर घाव थे।
जिसके संबंध में FIR संख्या 371/2020 थाना :- थाना भवन, जिला शामली पर अंतर्गत धारा 307/504/34 आईपीसी दर्ज है।
Anticipatory Bail Order Of Hon’ble High Court
“…. Having heard learned counsel for the parties and upon perusal of material brought on record as well as complicity of accused and also judgement of the Apex Court in the case of P. Chidambaram v. Directorate of Enforcement, AIR 2019 SC 4198, this Court does not find any exceptional ground to exercise its discretionary jurisdiction under Section 438 Cr.P.C.
However, in view of the entirety of facts and circumstances of the case and on the request of learned counsel for the applicants, it is directed that in case the applicants appear and surrender before the court below within 90 days from today and apply for bail, their prayer for bail shall be considered and decided as per the settled law laid by this Court in the case of Amrawati and another v. State of U.P. reported in 2004 (57) ALR 290 as well as judgement passed by Hon’ble Apex Court in the case of Lal Kamlendra Pratap Singh v. State of U.P. reported in 2009 (3) ADJ 322 (SC). Till then, no coercive action shall be taken against the applicants…. ” (emphasis supplied)
438(Cr.PC). Direction for grant of bail to person apprehending arrest (1) Where any person has reason to believe that he may be arrested on an accusation of having committed a nonbailable offence, he may apply to the High Court or the Court of Session for a direction under this section that in the event of such arrest he shall be released on bail; and that Court may, after taking into consideration, inter alia, the following factors, namely :-
xxx
either reject the application forthwith or issue an interim order for the grant of anticipatory bail: Provided that, where the High Court or, as the case may be, the Court of Session, has not passed any interim order under this sub Section or has rejected the application for grant of anticipatory bail, it shall be open to an officer incharge of a police station to arrest, without warrant, the applicant on the basis of the accusation apprehended in such application.
xxx
(2) When the High Court or the Court of Session makes a direction under subsection (1), it may include such conditions in such directions in the light of the facts of the particular case, as it may think fit, including
xxx
(3) If such person is thereafter arrested without warrant by an officer in charge of a police station on such accusation, and is prepared either at the time of arrest or at any time while in the custody of such officer to give bail, he shall be released on bail; and if a Magistrate taking cognizance of such offence decides that a warrant should issue in the first instance against that person, he shall issue a bailable warrant in conformity with the direction of the Court under subsection (1).
(emphasis supplied)
THE CONCLUSION
धारा 438 (1) सीआरपीसी का विश्लेषण करने के बाद यह बात साफ हो जाती है कि यह परंतुक कोई अधिकार या प्रतिबंध उत्पन्न नहीं करता। बल्कि इसका का एकमात्र उद्देश्य उक्त धारा की प्रकृति में स्पष्टीकरण करना प्रतीत होता है। यह तो केवल अन्य बातों के साथ-साथ इस बात को पुन: स्थापित करता है कि जब तक किसी व्यक्ति ने न्यायालय से सुरक्षा प्राप्त नहीं की है,तब तक पुलिस उसे गिरफ्तार कर सकती है। गुरबख्श सिंह सिब्बिया ( सुप्रीम कोर्ट ) के फैसले के अनुसार परंतुक को न्यायालय की शक्ति पर रोक लगाने के रूप में नहीं पढ़ा जा सकता। यहां तक हाई कोर्ट के पास उक्त धारा से अलग भी जैसे 482 सी.आर.पी.सी और अनुच्छेद 142 के अनुसार भी Inherent Powers ( निहित शक्तियां ) मौजूद है।
Explained by Mohit Bhati Advocate