कई अपराधों में एक ही आरोप पत्र दाखिल करने की अनुमति नहीं है: कर्नाटक उच्च न्यायालय
कर्नाटक उच्च न्यायालय ने हाल ही में कर्नाटक राज्य बनाम ग्रीनबड्स एग्रो फॉर्म लिमिटेड कंपनी के मामले में अवधारित किया कि कई अपराध और अलग-अलग शिकायतें होने पर एक सामान्य चार्जशीट दायर नहीं की जा सकती है।
निचली अदालत ने आरोपपत्र को इस आधार पर खारिज कर दिया कि पुलिस निरीक्षक रिपोर्ट दाखिल करने के लिए सक्षम अधिकारी नहीं है। सम्बन्धित न्यायालय ने जांच अधिकारी (आईओ) को न्यायिक मजिस्ट्रेट के समक्ष आरोप पत्र दाखिल करने का निर्देश देते हुए आरोपी को भी आरोपमुक्त कर दिया।
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High Court of Karnataka |
उच्च न्यायालय के समक्ष, राज्य लोक अभियोजक (एसपीपी) ने तर्क दिया कि निचली अदालत ने विशेष कानून ( Special Act ) के प्रावधानों की व्याख्या करने में गलती की और आरोपी को आरोपमुक्त करने का कार्य किया जोकि अवैध था।
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जी की परपोती को साउथ अफ्रीका में फ्रॉड करने के आरोप में 7 साल की सजा सुनाई गई है।
एस.पी.पी ( Special Public Prosecutor ) ने आगे तर्क दिया कि विशेष कानून के तहत स्थापित विशेष न्यायालय सभी अपराधों की सुनवाई के लिए सक्षम था। इसलिए निचली अदालत के आदेश को निरस्त किया जाना चाहिए.
उच्च न्यायालय ने कहा कि अलग-अलग प्रकृति के अपराधों के लिए एक ही आरोप पत्र दायर नहीं किया जा सकता है। उच्च न्यायालय ने इस संबंध में, राज्य बनाम खिमजी भाई जडेजा के मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय की डिवीजन बेंच के एक निर्णय का हवाला दिया, जिसमें यह अवधारित किया गया था कि
“From chapter number 12 of the Cr.P.C., it is evident that upon disclosure of the information in relation to commission of a cognizable offence, the police is bound to register the FIR. The registration of the FIR sets in to motion the process of investigation. The same culminates into the filling of the final report by the police officer before the Magistrate. Thus, in respect of every FIR, there would be a separate final report and, there could be, further report(s) in terms of the section 173(8).”
कोर्ट ने कहा कि एक ही आरोपी द्वारा 12 महीने के भीतर किए गए समान अपराधों के सम्बन्ध में एक समान चार्जशीट बनाकर एक साथ मुकदमा चलाया जा सकता है, लेकिन कई अपराधों में सामान्य चार्जशीट दाखिल करने का सवाल अनुचित है, इस संबंध में न्यायालय/मजिस्ट्रेट को चार्ज फ्रेम करते समय दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 219 के प्रावधानों का कड़ाई से पालन करना चाहिए। जिसमें साफ-साफ लिखा हुआ है कि “समान अपराधों के लिए एक ही ट्रायल चलाया जा सकता है लेकिन उनकी संख्या 3 से अधिक नहीं होनी चाहिए”
न्यायमूर्ति के•नटराजन की खंडपीठ ने धोखाधड़ी के एक मामले में कहा कि जांच अधिकारी ने विभिन्न थानों में दर्ज विभिन्न अपराधों के लिए एक साझा आरोप पत्र दाखिल कर गलती की है।
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इस मामले में अभियुक्तों ने कथित तौर पर जनता से निवेश की आड़ में धन एकत्र किया और उन्हें धोखा दिया, इसलिए उनका यह कृत्य भारतीय दंड संहिता और वित्तीय प्रतिष्ठान अधिनियम, 2004 (विशेष कानून) में जमाकर्ताओं के कर्नाटक हित संरक्षण के तहत दंडात्मक प्रावधानों को आकर्षित करता है।
अलग-अलग निवेशकों द्वारा अलग-अलग पुलिस थानों में शिकायत दर्ज कराने के बाद जांच की गई और पुलिस निरीक्षक ने सामान्य आरोपपत्र दाखिल किया।
“प्रत्येक प्राथमिकी के संबंध में, एक अलग अंतिम रिपोर्ट [और जहां भी आवश्यक पूरक/आगे आरोप पत्र] दायर की जानी चाहिए, और अंतिम रिपोर्ट के समामेलन का कोई सवाल ही नहीं है जो विभिन्न प्राथमिकी के संबंध में दायर किया जा सकता है।”
उपरोक्त विचार से सहमत होते हुए न्यायमूर्ति नटराजन ने कहा,
“मैं दिल्ली उच्च न्यायालय की डिवीजन बेंच द्वारा लिए गए दृष्टिकोण से पूरी तरह सहमत हूं। ऊपर बताए गए निर्णय के अवलोकन पर, यह स्पष्ट है कि, एक ही आरोपी द्वारा बारह महीने के भीतर किए गए अपराधों को सी.आर.पी.सी की धारा 219 के अनुसार एक सामान चार्जशीट बनाकर एक साथ विचार किया जा सकता है, लेकिन सवाल यह है कि कई अपराधों या शिकायतों में एक आरोप पत्र दाखिल करने की अनुमति नहीं है।
अदालत ने इस प्रकार निर्देश दिया कि इस जांच में आरोप पत्र ( Chargesheet 173 Cr.P.C ) जांच अधिकारी को वापस कर दिया जाए और प्रत्येक व्यक्तिगत शिकायत के लिए इसे अलग से फिर से दायर किया जाए।
राज्य का प्रतिनिधित्व एसपीपी शीलवंत वीएम ने किया, जबकि अधिवक्ता राघवेंद्र एन ने प्रतिवादियों का प्रतिनिधित्व किया।
Order of The Karnataka High Court :
माननीय उच्च न्यायालय ने अपने आदेश में कहा कि ट्रायल कोर्ट ने आरोप पत्र को इस आधार पर खारिज करने में गलती की है कि विवेचना अधिकारी आरोप पत्र दाखिल करने के लिए सक्षम प्राधिकारी नहीं है और गलत तरीके से अभियुक्त को बरी कर दिया जोकि section 9 ( Special Act ) के अंतर्गत एक दंडनीय अपराध है और संबंधित न्यायालय ने विवेचना अधिकारी को यह निर्देश देने में भी गलती की है कि आईपीसी के तहत दंडनीय अपराधो के सम्बन्ध में चार्जशीट को ज्यूडिशल मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश किया जाए. इसलिए उक्त आक्षेपित आदेश (impugned order) को रद्द किए जाने की आवश्यकता है.
परिणाम स्वरूप याचिका को स्वीकार किया जाता है. प्रिंसिपल डिस्ट्रिक्ट एंड सेशन जज, मैसूर द्वारा पारित आदेश दिनांक 8 अगस्त 2016, मुकदमा अपराध संख्या 116/2013 को निरस्त किया जाता है. आरोपी को बरी करना एतदद्वारा अपास्त किया जाता है.
कर्नाटक उच्च न्यायालय ने अपने आदेश में विशेष न्यायालय को निर्देशित किया कि वह विवेचना अधिकारी को चार्जशीट वापस करें और प्रत्येक अपराध के संबंध में अलग से चार्जशीट ट्रायल कोर्ट के समक्ष प्रेषित करें.